मन में बसी देव प्रतिमाओं को जब हाथों की कला तराशना शुरू करती है, तो माटी में भगवान के दर्शन कराने का हुनर सामने आता है। इस कला के लिए शहर के वार्ड नंबर 16 के कोटांगले परिवार को बाहर जिलों में भी याद किया जाता है।लेकिन अब इन हुनरबाजों का मूर्तिकला से मोहभंग होता जा रहा है।जिसके जिले में माटी को मूर्त रूप देने की कला विलुप्ति की कगार पहुंच गई है। बताया जा रहा है कि केवल बालाघाट नगर ही नहीं बल्कि संपूर्ण जिले में मूर्तिकारों के लिए शासन प्रशासन द्वारा किसी प्रकार की योजना नहीं बनाई गई है। ना ही उनके व्यवसाय को बढ़ाने के लिए प्रयास किए गए हैं। जिसके चलते मूर्तिकारो को आर्थिक व मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। तो वही वर्तमान महंगाई के दौर में लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा है।
5 पीढ़ियों से बना रहे प्रतिमाएं
शहर के वार्ड नंबर 16 सुभाष चौक के समीप निवासरत कोटांगले परिवार पांच पीढिय़ों से भगवान की मूरत बनाने की कला को जीवित रखे हुए हैं। चार भाईयों के 25 से 30 लोगों के परिवारों में महिलाएं भी इस कला में पारंगत है। इनके हाथों के हुनर के कायल बालाघाट सहित अन्य जिलों के कला को चाहने वाले भी हैं। लेकिन इनकी स्थिति आज भी पहले की तरह बनी हुई है। परिवार के वरिष्ट अशोक कोटांगले के अनुसार शासन प्रशासन उन्हें प्रोत्साहित करें, तो उनकी इस कला के जरिए जिले का नाम देश विदेश तक विख्यात हो सकता है।उनके जीवन स्तर में भी सुधार आ सकता है।लेकिन इस कला को लेकर प्रशासनिक कोई प्रयास नही किए जा रहे है। यहां तक कि हमें इस व्यवसाय के आधार पर लोन तक नहीं मिलता है।
6 इंच से लेकर 15 फिट तक बना रहे मूर्तियां
यह मूर्ति कलाकार 6 इंच से लेकर 10 से 15 फीट तक की गणेश प्रतिमाओं का निर्माण कर रहे हैं। मूर्तियां बनाने में साढ़ू प्रजाति की मिट्टी उपयोग में ली जाती है, जो कि टेकाड़ी, मानेगांव से पांच हजार रुपए टै्रक्टर ट्राली में खरीदनी पड़ती है। अमरावती से 900 रूपए लीटर का कलर, 100 रुपए मीटर के हिसाब से कपड़े, 50 से 100 रुपए नग के बांस बल्लियों के अलावा चार सौ रुपए रोजी के हिसाब से मजदूर भी रखने पड़ते हैं। ऐसे में एक छोटी गणेश प्रतिमा की लागत उन्हें 700 से 800 रुपए आती है। जिसे वे 11 सौ रुपए में विक्रय किया करते हैं। लेकिन ग्राहक इतनी कीमत भी देने तैयार नहीं होते है। मूर्तिकार बताते हैं कि कई बार तो उन्हें उन्हें पौने दाम में प्रतिमाएं बचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
मिट्टी तक खरीद कर लाना पड़ता है
पदमेश न्यूज़ से की गई चर्चा के दौरान मूर्तिकारो ने बताया कि पिछले कुछ वर्षो से उनकी कला व मेहनत की सही कीमत उन्हें नहीं मिल पा रही है। वे पुश्तैनी काम को जिंदा रखने के लिए ही मेहनत कर रहे हैं। कच्चा सामान, मिट्टी, पैरा, लकड़ी, लोहे, कील, कलर और कपड़े इन सब सामानों को एकत्र करने में लगभग एक महीने का समय लगता है। कच्चे सामान के दाम बढऩे से मूर्ति के दाम भी बढ़े हैं। कई बार बढ़े हुए दाम सुनकर ग्राहक वापस लौट जाते हैं। सीजन के बाद सहीं कीमत न मिलने से उन्हें मूर्तियों को लागत मूल्य में ही विक्रय करना पड़ रहा है।
शासन प्रशासन से उम्मीदं
स्थानीय मूर्तिकारों ने बताया कि शासन प्रशासन ने मूर्ति कला से जुड़े कलाकारों के लिए कोई योजनाएं नहीं बनाई है। ना ही उन्हें कोई प्रोत्साहन व सुविधाएं दी जाती है।शासन यदि उन्हें मिट्टी खदान, बांस, बल्ली, कलर कपड़ा आदि में अनुदान और लोन सुविधा उपलब्ध कराए तो वे इस कला के व्यवसाय को और आगे तक लेकर जा सकते हैं। वर्तमान में सीजन के समय उन्हें निजी संस्थाओं से अधिक ब्याज पर कर्जा लेना पड़ता है।
बहारी प्रतिमाओ की बिक्री पर लगाई जाए रोक, मूर्तिकारों को सरकार करें प्रोत्साहित- अशोक
मूर्तिकला को लेकर की गई चर्चा के दौरान प्रमुख मूर्तिकार अशोक कोटांगले ने बताया कि शासन प्रशासन द्वारा मूर्तिकारों के प्रति हमेशा उदासीन रवैया अपनाया गया है।हमे ना तो इस व्यवसाय के आधार पर लोन दिया जाता है और ना ही मिट्टी की खदानें आवंटित की जाती हैं। प्रतिमा बनाने के लिए लगने वाली छोटी बड़ी सभी सामग्रियों को महंगे दामों पर खरीद कर लाना पड़ता है। पूरा परिवार मिलकर एक बड़ी प्रतिमा बनता है जिसका लागत मूल्य भी ठीक से हमें नहीं मिल पाता। कई बार तो बाहर राज्यों व जिलों से आने वाली प्रतिमाओं के चलते हमारी प्रतिमाओं को कीमत नहीं मिल पाती। जिले में सिवनी, मंडला, पलारी,जबलपुर, गोंदिया सहित अन्य जगहों से प्रतिमाएं बिक्री के लिए आती है।यदि शासन द्वारा बाहर से आने वाली प्रतिमाओं की बिक्री पर रोक लगा दी जाए।तो हमें प्रतिमाओं के अच्छे दाम मिलेंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं होता। शासन ने हमारे लिए कोई विशेष योजना बनानी चाहिए,ताकि हम भी उन योजनाओं का लाभ लेकर उन्नति कर सके।