साल था 1941, तारीख थी 2 नवंबर और जगह थी जर्मनी की राजधानी बर्लिन। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जंग लड़ने के लिए जर्मन विदेश मंत्रालय की मदद से बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर (मुक्त भारत केंद्र) की स्थापना की थी। उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उस सभा को बहुत प्रभावशाली और ओजस्वी तरीके से संबोधित किया था। इस केंद्र के उद्घाटन समारोह में ‘आजाद हिंद’ के सदस्यों ने रबींद्र नाथ टैगोर द्वारा रचित जन-गण-मन को गाने का फैसला लिया। इसके बाद ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने निर्णय लिया कि ‘जन-गण-मन’ को भारत का राष्ट्रगान बनाया जाएगा और ‘जय हिंद’ होगा राष्ट्रीय अभिवादन शब्द।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के एक साथी एन जी गणपुले ने इस बारे में लिखा है कि ‘बर्लिन में हुई उस बैठक में जन-गण-मन के पक्ष में बहुत मजबूत तर्क रखे गए। कहा गया कि जन-गण-मन ही वो गीत था जो उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक भारत को एक राष्ट्र के तौर पर परिभाषित करता था। इस गीत में बहुत ही खूबसूरती से राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों, मजहबों और भाषाओं को सम्मान के साथ स्थान दिया गया था।’
हालांकि इस बैठक में राष्ट्रगान के तौर पर वंदे-मातरम का नाम भी राष्ट्रगान के तौर पर प्रस्तावित किया गया था, लेकिन निष्कर्ष निकला कि संस्कृत में होने की वजह से वंदे-मातरम को समझ पाना आम भारतीय के लिए मुश्किल होगा। इसलिए जन-गण-मन को तवज्जो दी गई। ये जानना भी आपको रोचक लग सकता है कि जन-गण-मन के चयन के समय इस बात का भी खास ख्याल रखा गया कि भारत का राष्ट्रगान कुछ ऐसा होना चाहिए जिसकी लय की खूबसूरती किसी भी तरह की आवाज के व्यक्ति के गाने पर बरकरार रह सके। फिर कोई जरूरी नहीं कि उस गायक को सुर या संगीत की कोई विशेष समझ हो! कहने की जरूरत नहीं कि जन-गण-मन इस कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है।
इस प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बी एल मुखर्जी को बुलावा भेजा जो उस समय फैशन टेक्सटाइल रिसर्च इंस्टिट्यूट के कर्मचारी थे और बर्लिन के आधिकारिक रेडियो स्टेशन के सक्रिय गायक थे। मुखर्जी के साथ नेताजी ने अंबिक मज़ूमदार को भी बुलवाया जो संगीत में डॉक्टरेट थे। नेताजी ने इन दोनों को जन-गण-मन को सुर और संगीतबद्ध करने की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी।
कुछ महीने के बाद 11 सितबंर 1942 में सुभाष बाबू ने हैमबर्ग (उत्तर जर्मनी का एक शहर) में जर्मन-इंडियन सोसायटी का उद्घाटन किया। इस समारोह के उपलब्ध वीडियो इस समारोह की भव्यता की गवाही देते हैं। ये पहला मौका था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आधिकारिक तौर पर 55 सेकंड की अवधि में भारत के राष्ट्रगान का उद्बोधन किया। इस समारोह में भारतीय राष्ट्रगान के साथ जर्मनी के भी राष्ट्रगान को गाया गया था।
लेकिन आगे चलकर सुभाष बाबू को अहसास हुआ कि जन-गण-मन पर बंगाली साहित्यिक भाषा का असर ज्यादा था, जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में शायद उतनी सहजता से स्वीकार नहीं किया जाता। तो अगले ही वर्ष जब नेता जी ने दक्षिण-पूर्व एशिया का दौरा किया तो आजाद-हिंद फौज के रेडियो की जिम्मेदारी संभालने वाले अपने साथियों को जन-गण-मन का अनुवाद सामान्य हिंदुस्तानी भाषा में करने के निर्देश दिए। इसके Hasan (who had been his co-passenger in the U-boat) and Mumtaz Hussain परिणामस्वरूप ‘सब सुख चैन की बरखा’ गीत का निर्माण हुआ, जो आगे चलकर कौमी तराना नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका संगीत कैप्टन राम सिंह ठाकुर ने दिया था।
कैप्टन ठाकुर ने कई सालों बाद इस बात का खुलासा किया था कि आजाद-हिंद फौज के कैंपों में जब भी झंडा फहराया जाता तब सभी बटैलियन और जवान साथ मिलकर इस ऊर्जावान गीत को दोहराते थे। और फौज के किसी भी समारोह का समापन इसी गीत के साथ किया जाता था। आगे चलकर जैसे-जैसे भारतीयों के बीच आजाद हिंद फौज के संघर्ष की कहानियां पहुंचने लगी, हिंदुस्तानियों के दिलों में जन-गण-मन भी अपनी जगह बनाता गया।
जन-गण-मन का एक परिचय
जन-गण-मन को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था। उनका जन्म 7 मई 1861 को टैगोर का जन्म तत्कालीन कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था। ‘जन गण मन’ को पहली बार 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दूसरे दिन का काम शुरू होने से पहले गाया गया था। अगले दिन के अखबारों में ये खबर प्रमुखता से छपी थी।
जन-गण-मन से जुड़ा बड़ा विवाद
1911 में ही अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम अपनी पत्नी के साथ भारत के दौरे पर आए हुए थे। तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड हार्डिंग्स के कहने पर जॉर्ज पंचम ने बंगाल के विभाजन को निरस्त कर उड़ीसा को एक अलग राज्य का दर्जा दे दिया था। इसके लिए कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में एक धन्यवाद गीत के जरिए जॉर्ज की तारीफ भी की गई। ये दूसरा गाना रामभुज चौधरी ने लिखा था। ये हिंदी में था और बच्चों ने इसे गाया था, जिसके बोल थे, ‘बादशाह हमारा….’ कुछ अखबारों ने इसके बारे में भी खबर दी। लेकिन यहीं सबसे बड़ी चूक हो गई।
कहा जाता है कि उस समय रामभुज चौधरी से बहुत कम लोग परिचित थे। इसलिए गफलत में कुछ अखबारों ने इस बारे में छापा कि सम्राट की प्रशंसा में टैगोर का लिखा गीत गाया गया। तब से लेकर आज तक ये विवाद जब-तब सिर उठाता रहा है कि जन-गण-मन को अंग्रेजों की प्रशंसा में गाया गया था।
इस तरह के आरोपों की काट में रवींद्र नाथ टैगोर ने 1912 में स्पष्ट किया कि गाने में वर्णित ‘भारत भाग्य विधाता’ के सिर्फ दो ही मतलब हो सकते हैं: या तो देश की जनता, या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला—चाहे उसे भगवान कहें, चाहे देव। खुद पर आरोप लगाने वाले लोगों को लेकर रवींद्र नाथ टैगोर ने साल 1939 में लिखा था कि ”मैं उन लोगों को जवाब देना अपनी बेइज्जी समझुंगा जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.”ॉ
आपको ये जानना भी दिलचस्प लग सकता है कि बांग्लादेश के राष्ट्रगान ‘अमार सोनार बांग्ला’ को भी रविंद्र नाथ टैगोर ने ही ही लिखा था।
और इस तरह जन-गण-मन भारत का राष्ट्रगान बना
देश के पहले राष्ट्रपति (तब राष्ट्रपति चुने जा चुके थे लेकिन पद ग्रहण 26 जनवरी 1950 को किया) डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को आयोजित संविधान सभा की बैठक में जन-गण-मन को भारत का राष्ट्रगान घोषित किया था। इस मौके पर उन्होंने कहा था-
”एक विषय ऐसा है जिस पर विमर्श किया जाना बाकी है। ये मुद्दा राष्ट्रगान के चयन से जुड़ा है। पहले सोचा गया था कि इस बारे में एक प्रस्ताव को सदन के समक्ष रखा जाएगा और फिर उस पर स्वीकृति ली जाएगी। लेकिन बाद में निर्णय लिया गया कि राष्ट्रगान के सम्मान को ध्यान में रखते हुए इस पर स्वीकृति लेने की बजाय सीधे ही इसकी घोषणा करना बेहतर होगा। इसलिए मैं इस बात की घोषणा करता हूं कि जन-गण-मन को शब्द और संगीत सहित भारत का राष्ट्रगान चुना जाता है। साथ ही ‘वंदे-मातरम’ जो कि अतीत में हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई का अहम हिस्सा रहा है, उसे भी जन-गण-मन के बराबर ही सम्मान दिया जाएगा। मैं उम्मीद करता हूं इससे सम्मानीय सदस्यगण संतुष्ट हैं।”