कौन थे नेहरू के पूर्वज, जानिए दिल्ली की एक ‘मुगल हवेली’ का राज

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1947 में देश आजाद हुआ तो जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) देश के पहले प्रधानमंत्री बने.

तब अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री. चुनाव हुए तब तक महात्मा गांधी और सरदार पटेल (Mahatma Gandhi and Sardar Patel) जैसे दिग्गजों का निधन हो चुका था. सुभाष चंद्र बोस का तो आजादी से पहले ही रहस्यमयी तरीके से निधन हो गया था. 1952 में हुए देश के पहले चुनाव में 497 लोकसभा सीटों पर चुनाव हुआ.

25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक करीब चार महीने तक चले लोकतंत्र के पहले महाकुंभ ने देश को उस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया था, जहां से उसे दुनिया के सामने लोकतांत्रिक इतिहास का एक लंबा सफर तय करना था. और इसकी कमान जवाहर लाल नेहरु के हाथों ही सौंपी गई.

ये वो दौर था जब स्वतंत्रता संग्राम की वजह से देश में कांग्रेस (Congress) की एक अलग छवि थी. कांग्रेस के पास नेहरु जैसा दमदार वक्ता था. देश में 10 करोड़ 59 लाख लोगों ने वोट किया. पंडित नेहरु ने देश में धुंआधार प्रचार किया. 40 हजार किलोमीटर की यात्रा कर साढ़े 3 करोड़ लोगों को संबोधित किया. जिस दौर में देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था, तब भी कांग्रेस को सिर्फ 44.99 प्रतिशत वोट मिले. देश में 4,76,65,951 वोट कांग्रेस को मिले.

इन चुनावों (Lok Sabha Elelction) के बाद कांग्रेस ने देश के राजनीतिक इतिहास का लंबा सफर अपने नाम किया. पहले चुनाव में करीब 45 प्रतिशत वोट पाने वाली कांग्रेस सत्ता में भले ही लंबे वक्त तक कायम रही. लेकिन गैर कांग्रेसी पार्टियों को वोट देने वाले 33 प्रतिशत वोटर हो या निर्दलीयों में अपना भाग्य देखने वाले लोग हो. कांग्रेस की नीतियों और कार्यशैलियों पर सवाल उठाते रहे. और सवालों में सबसे ज्यादा निशाने पर नेहरु परिवार रहा.

इन सवालों में सबसे ज्यादा चर्चा नेहरु परिवार के इतिहास को लेकर रही है. जिसमें कई लोग अलग-अलग तरह की राय और तर्क देते है. राहुल गांधी (Rahul Gandhi), राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) या इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) और जवाहर लाल नेहरु के इतिहास को समझने के लिए हमें करीब तीन सौ साल पीछे जाना होगा.

एक कश्मीरी परिवार और मुगल राजा
साल 1710 की बात है. तब कश्मीर (Kashmir News) में राज नारायण कौल नाम के पढ़े लिखे शख्स रहते थे. नारायण कौल ने 1710 में कश्मीर के इतिहास (History Of Kashmir) पर किताब लिखी. जिस किताब का नाम था तारिखी कश्मीर. नारायण कौल संस्कृत के साथ साथ फारसी के भी जानकार थे. ये बात दिल्ली के मुगल दरबार तक भी पहुंची. दिल्ली में 1713 से लेकर 1719 तक फर्रूखसियर का राज था. राज सत्ताओं के लिए उस दौर में भी पढ़े लिखे और बुद्धिजीवि लोगों की अहमियत थी. फर्रुखसियर जब कश्मीर गए तो वहां उन्हैं राज नारायण के बारे में पता चला. और उन्हौने राज नारायण कौल (Raj Narayan Kaul) को दिल्ली (Delhi News) में आकर बसने का न्यौता दिया.

ये कौल परिवार दिल्ली आया. राजा ने एक छोटी सी जागीरी दी. और दिल्ली में नहर के ठीक किनारे रहने के लिए एक हवेली दी. नहर के किनारे रहने की वजह से इस कौल परिवार की पहचान भी नहर से ‘नेहरु’ हो गई.

ज्यादातर इतिहासकार भी नेहरु उपनाम के पीछे इसी तर्क से सहमत है. खुद पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अपनी आत्मकथा में भी नेहरु उपनाम के पीछे यही कहानी बताई है. लेकिन कुछ लोग इस कहानी से सहमत नहीं है.

तो क्या नेहरू नाम की ये कहानी झूठी है ?
जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) की जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ लिखने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार मौहम्मद युसुफ टैंग इस तर्क से सहमत नहीं है. वो नेहरु नाम के पीछे की कहानी को कश्मीर से ही जोड़कर देखते है.

प्रसिद्ध लेखक अशोक कुमार पांडेय ने अपनी किताब ‘कश्मीरनामा’ में भी मौहम्मद युसुफ टैंक के हवाले से लिखा है कि “मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर कभी कश्मीर गया ही नहीं. इसलिए नेहरू का यह दावा कि राज कौल पर बादशाह की नज़र पड़ी और उनके आमंत्रण पर राज नारायण कौल दिल्ली आए, सही नहीं लगता. यूसुफ़ टैंग ने कहा कि राज कौल का जिक़्र उस दौर के कश्मीरी इतिहासकारों के यहां नहीं मिलता. वो बहुत प्रतिष्ठित विद्वान हों, इसकी संभावना नहीं लगती.

आगे अपनी किताब कश्मीरनामा (Kashmirnama) में जम्मू कश्मीर कला, संस्कृति और भाषा अकादमी के पूर्व सचिव और लेखक युसुफ टैक के हवाले से अशोक कुमार पांडेय लिखते है कि युसुफ टैग का ये मानना था कि नेहरू उपनाम कश्मीर की ही पैदाइश है. जहां उत्तर भारत में दीर्घ ई से उपनाम बनते हैं, कश्मीर में ऊ से उपनाम बनते हैं. कश्मीर में चूंकि नहर के लिए कुल या नद इस्तेमाल होता है, तो नेहरू उपनाम का नहर से कोई रिश्ता नहीं मालूम पड़ता. टैंग का मानना है कि या तो नेहरू परिवार श्रीनगर एयरपोर्ट (Srinagar Airport) के पास के नौर या फिर त्राल के पास के नुहर गांव का रहने वाला था. और शायद इसकी ही वजह से ‘नेहरू’ उनका उपनाम बन गया”

नेहरू परिवार इतना ताकतवर कैसे बना ?
बी आर नंदा की किताब द नेहरूज़, मोतीलाल ऐंड जवाहरलाल में इस परिवार के इतिहास के बारे में विस्तार से लिखा गया है. राजनारायण कौल के दो पोते थे. मौसा राम कौल और साहेब राम कौल. मौसा राम के बेटे थे लक्ष्मी नारायण कौल नेहरु. चूंकी ये परिवार दिल्ली में मुगल शासन का करीबी पहले से हो गया था. ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने लक्ष्मी नारायण कौल नेहरु के मुगल दरबार में अपना वकील बनाया. लक्ष्मी नारायण के बेटे थे गंगाधर नेहरु. जो 1857 की क्रांति से पहले दिल्ली के कोतवाल थे.

हंसराज रहबर ने अपनी किताब में लिखा है. कि 1857 की क्रांति के समय जब दिल्ली में मार काट हुई. तो कई लोग दिल्ली छोड़कर भाग गए थे. नेहरु परिवार भी दिल्ली से आगरा चला गया था. आगरा जाते समय कुछ अंग्रेज सिपाहियों ने घेर लिया था. लेकिन मोतीलाल नेहरु के दोनों भाईयों बंसीधर और नंदलाल की अंग्रेजी शिक्षा और ईस्ट इंडिया कंपनी से पारिवारिक नजदीकी की वजह से जान बच गई.

1857 के समय मोतीलाल नेहरू (Motilal Nehru) का जन्म नहीं हुआ था. तब बंसीधर और नंदलाल दो ही भाई थे. 1861 में मोतीलाल नेहरु का जन्म हुआ. बंसीधर ने आगरा में नौकरी की. वो जज के फैसलों को लिखने का काम करते थे. दूसरे भाई नंदलाल ने कुछ वक्त तक शिक्षक का काम किया और फिर खेतड़ी महाराजा के निजी सचिव बन गए. फिर खेतड़ी महाराजा फतेहसिंह ने उन्हे अपना दीवान बनाया. लेकिन फतेहसिंह की मौत के बाद उनकी नौकरी चली गई. और वापिस आगरा आकर वकालत की पढ़ाई शुरु की.

तीनों भाई वकील बन गए.
बंसीधर नेहरू पहले से कानून की पढ़ाई और कामकाज से जुड़े रहे. खेतड़ी से लौटने के बाद नंदलाल ने भी यही रास्ता अपनाया. दोनों भाई वकील बन चुके थे. इधर मोतीलाल नेहरु भी इलाहाबाद से मैट्रिक पास करने के बाद बीए की परीक्षा देने आगरा जाना था. लेकिन वो परीक्षा छोड़ ताजमहल (Taj Mahal) देखने चले गए. दूसरी पढ़ाई में मन नहीं लगा तो वो भी कानून की पढ़ाई करने लगे. पहले कानपुर (Kanpur News) और फिर इलाहाबाद में वकालात शुरु की. इसी बीच 14 नवंबर 1889 को जवाहर लाल नेहरू का जन्म हुआ. और फिर आगे की नेहरु परिवार की कहानी आप में से ज्यादातर लोग जानते है.

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