क्या अमेरिका की नासमझी ने तालिबान को और ताकतवर बना दिया

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तालिबान को पश्तो भाषा में स्टूडेंट कहा जाता है। लेकिन ये स्टूडेंट तालीम की जगह बंदूकों और हथियारों की पढ़ाई करने लगे। 1970 के दशक में बाईपोलर वर्ल्ड में जब अमेरिका और सोवियत संघ एकदूसरे के आमने सामने थे तो वैश्विक धमक बनाए रखने के लिए कुछ खास मुहिम पर अमेरिका ने बल दिया। एक तरह से कहें तो अमेरिका ने तालिबान को पालने पोसने का काम किया और बहुत हद तक सोवियत संघ पर लगाम लगाने में कामयाब रहा।

2001 के बाद हालात बदले
1980 के दशक में हालात बदले सोवियत संघ बिखर चुका था और अफगानिस्तान में एक तरह से राजनीतिक निर्वात पैदा हुआ और उसे भरने के लिए तालिबानी हुकुमत में आ गए। उसी कालखंड में वैश्विक तौर पर समीकरण बदले और जिस तालिबान को अमेरिका ने पाला पोसा वो अमेरिका को आंख दिखाने लगा जो अमेरिकी नीति नियंताओं को कत्तई मंजूर नहीं हुआ। 2001 में जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अल कायदा ने हमला किया तो अमेरिका इस नतीजे पर पहुंचा कि तालिबान की भी मदद मिली हुई थी, लिहाजा अमेरिकी रुख में बदलाव हुआ और अमेरिका ने अपना खूंटा अफगानिस्तान में गाड़ दिया।

अमेरिकी हथियार अब तालिबान के पास
बताया जा रहा है कि तालिबान के पास इस समय 44 टैंक, 1 हजार से अधिक बख्तरबंद गाड़ियां, करीब 780 तोप और लैंडमाइन से बचाव के लिए 20 गाड़ियां। ये वो साजो सामान है कि जो तालिबान के नापाक मंसूबों को और मजबूत करेंगे। एक तरह से किसी अभियान के खिलाफ उनके लिए रक्षा कवच की तरह साबित होंगे।इसके अलावा हम्बीज गाड़ियां भी तालिबान के हाथ में है। इसका अर्थ यह है कि जिस तरह से अब पेशेवर सेनाएं एक जगह से दूसरी जगह पर जाती हैं ठीक वैसे ही अब तालिबान भी आ जा सकेंगे। इसके अलावा अब तालिबान के कब्जे में 155एमएम वाली होवित्जर तोपें भी हैं जो अफगान सेना को अमेरिका ने दिया था। 

क्या कहते हैं जानकार
जानकारों के मुताबिक पूरी दुनिया के लिए तालिबान का मजबूत होना शुभ संकेत नहीं है। पहले तो तालिबान के पास इतने अत्याधुनिक हथियार नहीं थे वो आतंकी वारदात किया करते थे। छिपकर अफगान सेना पर हमले किया करते थे। लेकिन अब वो पेशेवर सेना की तरह लड़ाई लड़ सकते हैं। इसके साथ ही आप अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान को समझिए जब वो कहते हैं कि हमारा काम राष्ट्र निर्माण नहीं था। अमेरिका ने 20 साल पहले पैदा हालात को देखते हुए फैसला किया था। इसका अर्थ यह है कि अमेरिकी प्रशासन अब इस मुद्दे पर ज्यादा गंभीर नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि अगर आने वाले समय में तालिबान का अल कायदा, आईएसआईएस जैसे संगठनों से तालमेल और अधिक बढ़ता है तो अमेरिका के पास और क्या विकल्प हो सकते हैं।

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