नाले के पास झोपड़े में गुजरी जिंदगी, दो वक्‍त की रोटी के थे मोहताज, अब प्रवीण जाधव का ओलंपिक मेडल है लक्ष्‍य

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नई दिल्‍ली: आर्चर प्रवीण जाधव ने अपनी अधिकांश जिंदगी महाराष्‍ट्र के सतारा जिले के सरादे गांव में नाले के पास झोपड़े में बिताई। जाधव का बचपन और युवा उम्र का अधिकांश हिस्‍सा कठिनाइयों में गुजरा। 10 साल पहले प्रवीण को पता भी नहीं था कि क्‍या, क्‍यों और कैसे आर्चरी ओलंपिक खेल है। प्रवीण के पिता रमेश एक कंस्‍ट्रक्‍शन साइट पर दिहाड़ी मजदूर थे और उनकी मां खेत में मदद करती थी। यह परिवार दो वक्‍त के खाने के लिए लगातार संघर्ष करता था।

25 साल के प्रवीण जाधव टोक्‍यो ओलंपिक्‍स में भारत का प्रतिनिधित्‍व करेंगे। उन्‍होंने याद किया, ‘हमारी हालत तब बहुत बुरी थी। हम एक झोपड़ी में रहते थे। हमारे घर में बिजली नहीं थी और घर में पैसा भी नहीं था।’ बता दें कि जाधव पुरुषों की रिकर्व टीम में अतनु दास और तरुणदीप राय के साथ टीम में होंगे और साथ ही व्‍यक्तिगत स्‍पर्धा में भी भाग लेंगे। 

अपने पिता के साथ दिहाड़ी मजदूरी करने वाले थे प्रवीण

प्रवीण जाधव की जिंदगी में एक ऐसा समय भी आया जब वह अपने पिता के साथ दिहाड़ी मजदूरी में जुड़ने वाले थे। घर का खर्च नहीं निकलने के कारण प्रवीण के पिता ने उनसे कहा था कि सातवीं क्‍लास में पढ़ाई छोड़े और कंस्‍ट्रक्‍शन कंपनी में उनके साथ जुड़े। आर्चर ने कहा, ‘सरादे के अधिकांश लोगों से जैसे, मैं भी दिहाड़ी मजदूर के रूप में अपने पिता के साथ जुड़ने वाला था।’ मगर प्रवीण के लिए किस्‍मत ने कुछ और ही लिखा था।

प्रवीण तक सरादे के जिला परिषद स्‍कूल में पढ़ते थे। उनके स्‍पोर्ट्स टीचर विकास भुजबल को प्रवीण के घर की आर्थिक स्थिति पता थी। विकास ने प्रवीण को एथलेटिक्‍स में आने को कहा ताकि वो कुछ पैसे कमा सके। प्रवीण ने याद किया, ‘भुजबल सर ने मुझे दौड़ने और प्रतियोगिताओं में हिस्‍सा लेने को कहा। उन्‍होंने कहा, ‘कम से कम तू कुछ कमाई करेगा और कंस्‍ट्रक्‍शन साइट पर नहीं जाना पड़ेगा।’ तो तैंने 400 और 800 मीटर में दौड़ना शुरू किया।’

रनिंग में नहीं चला सिक्‍का

प्रवीण जाधव रनिंग में कमाल नहीं कर सके क्‍योंकि वह गंभीर रूप से कुपोषित थे। एक बार वॉर्म अप के दौरान वह बेहोश हो गए थे। विकास भुजबल ने सभी डाइट की जरूरतें और प्रवीण के खर्चे उठाए ताकि वो प्रतियोगिता में हिस्‍सा ले सके। बेहतर डाइट के साथ जाधव ने तालुका और जिला स्‍तर पर सफलता हासिल की। इससे महाराष्‍ट्र सरकार की क्रीड़ा प्रबोधीनी स्‍कीम में उनका चयन हुआ, जो मुफ्त कोचिंग, पढ़ाई और आवासीय एकेडमी में ग्रामीण क्षेत्र के एथलीट्स के रूकने की व्‍यवस्‍था देता है।

आर्चरी में इस तरह आए प्रवीण

अहमदनगर में क्रीड़ा प्रबोधीनी होस्‍टल में आर्चरी में प्रवीण की अजीबो-गरीब तरीके से एंट्री हुई। उनका खेल में चयन हुआ था क्‍योंकि एक ड्रिल हुई, जिसमें 10 मीटर की दूरी से उन्‍होंने 10 में से 10 गेंदें रिंग में डाली थी। जाधव ने कहा, ‘चूकि मेरा शरीर थोड़ा कमजोर था, तो मुझे आर्चरी में हाथ आजमाने को कहा गया और इसके बाद से मैंने इसे जारी रखा।’

इसके बाद जाधव ने विदर्भ के अमरावती में क्रीड़ा प्रबोधीनी में अपनी आर्चरी शैली को मजबूत किया। शुरूआत में एक साल तक उन्‍होंने पारंपरिक बांबू धनुष से अभ्‍यास किया, फिर आधुनिक उपकरण का उपयोग किया। आर्चरी में पकड़ बनाना मुश्किल काम है। अधिकांश बढ़ते हुए आर्चर्स को शुरूआत में कड़े समय से गुजरना पड़ता है और कई लोग को एक साल में ही धैर्य गंवा देते हैं।

प्रवीण को रिकर्व धनुष के वजन से संघर्ष करना पड़ता था और तीर चलाने के बाद वह कंधे में दर्द महसूस करते थे। शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद प्रवीण इस खेल से जुड़े रहे। उन्‍होंने दर्द सहा और इस शैली को सीखने के दौरान कई खराब नतीजे भी सहन किए। 

प्रवीण ने कहा, ‘मुझे पता था कि अगर आर्चरी में सफल नहीं हुआ तो मजदूर बनना होगा, इसलिए मैंने कड़ी मेहनत जारी रखी। सबसे मुश्किल समय में मेरी सोच थी कि कड़ी मेहनत करने के बावजूद मैं इसे छोड़ नहीं सकता और हार को स्‍वीकार करना होगा। मगर मैंने अपने लक्ष्‍य के लिए कड़ी मेहनत जारी रखी।’

3 लाख की किट कैसे खरीदते प्रवीण

जाधव का अगला ट्रायल तब आया जब क्रीड़ा प्रबोधीनी में उनका समय समाप्‍त हो गया था। उन्‍हें खेल जारी रखने के लिए अपने आर्चरी उपकरण की जरूरत थी। आर्चरी किट करीब 3 लाख रुपए की आती है और प्रवीण के पास पैसे नहीं थे। उन्‍होंने बताया, ‘सरकार से मुझे मदद मिली। मैंने 2016 विश्‍व कप में भारत का प्रतिनिधित्‍व किया, मुझे सरकार से ग्रांट मिला और उन पैसों से मैंने उपकरण खरीदे।’

बता दें कि जाधव की आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है। उन्‍हें स्‍पोर्ट्स कोटा के आधार पर 2017 में इंडियन आर्मी में नौकरी मिली। अब वह पुणे में आर्मी स्‍पोर्ट्स इंस्‍टीट्युट में ट्रेनिंग करते हैं। प्रवीण जाधव के लिए सरादे गांव से टोक्‍यो तक का सफर कठिन रहा, लेकिन उन्‍हें पता है कि वह अपना सपना जी रहे हैं।

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