(उमेश बागरेचा)
बीते कुछ दिनों से चल रहे स्थानीय निकायों एवं पंचायतों के नतीजों ने कांग्रेस-भाजपा दोनों ही दलों के कुछ जिम्मेदार किस्म के नेताओं तथा जनप्रतिनिधियों की कार्यप्रणाली को लेकर कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनके जवाब दोनों ही दलों के भोपाल में बैठे हाई कमान को ढूंढना होगा। केंद्र में तथा प्रदेश में भाजपा की सरकार होने के बावजूद जिले में पंचायत स्तर पर पंच ,सरपंच, जनपद सदस्य एवं जिला पंचायत सदस्यों के जितनी संख्या में भाजपा समर्थक निर्वाचित होना था, नहीं हुआ, जिसके चलते अधिसंख्य ग्राम पंचायत ,जनपद पंचायत में भाजपा स्पष्ट बहुमत से दूर है । यहां निर्दलीय भी अच्छी खासी संख्या में जीते हैं, और चूंकि प्रदेश में भाजपा की सरकार है, तो भाजपा जोड़-तोड़ करके जिन ग्राम पंचायतों तथा जनपद पंचायतों में बहुमत नहीं है वहां भी वह अपना उपसरपंच तथा जनपद पंचायत का अध्यक्ष आसानी से बिठा लेगी, क्योंकि कांग्रेस संगठन के हालात के बारे में सभी बखूबी जानते हैं कि वह कितने पानी में है। यहां विशेष उल्लेखनीय है कि परसवाड़ा क्षेत्र के विधायक एवं प्रदेश में राज्य मंत्री रामकिशोर कावरे के क्षेत्र से एक भी जिला पंचायत सदस्य का विजयी न होना स्वयं कावरे की भविष्य की राजनीति के लिए चिंताजनक है। रही बात जिला पंचायत के सदस्यों के निर्वाचित होने तथा अध्यक्ष के चुनाव की तो यहां भाजपा का बहुमत नहीं है ,कांग्रेस से बहुमत के लिए आवश्यक 14 सदस्य जीते हैं, जिसके चलते आसानी से बगैर संघर्ष, बगैर जोड़-तोड़ किए कांग्रेस का अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष आसीन होना चाहिए, लेकिन हो यह रहा है कि अध्यक्ष पद के सशक्त दावेदार पूर्व विधायक अशोकसिंह सरस्वार के पुत्र सम्राट सरसवार के पक्ष में आवश्यक संख्या से अधिक संख्या में सदस्यों का समर्थन होते हुए भी ,उन्हें अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने के लिए अत्यधिक संघर्ष करना पड़ रहा है । सम्राट सरसवार के समक्ष सबसे बड़ी समस्या अपने समर्थकों को भाजपा के रणनीतिकार विधायक गौरीशंकर बिसेन की छाया से बचाए रखना बड़ी चुनौती है तो उनकी स्वयं की पार्टी के ‘विभीषणों के प्रभाव से बचाए रखना और भी बड़ी चुनौती है । जिले में कांग्रेस संगठन बिखरा हुआ , विभिन्न गुटों में बटा हुआ तथा निष्क्रिय या कहा जाए कुंभकर्णिय नींद की आगोश में है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । गत दो माह से स्थानीय निकाय एवं पंचायतों के चुनाव की प्रक्रिया जारी है, और चुनाव में नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी अध्यक्ष के मार्ग दर्शन में सभी के सामंजस्य से चुनावी रणनीति का खाका खींचना चाहिए, लेकिन यहां तो पूरा चुनाव निपट गया और पूरे चुनाव के दौरान जिला कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष विश्वेश्वर भगत जिले से नदारत रहे ना तो उनसे प्रत्याशियों को कोई मदद मिली न ही मार्गदर्शन। पैर में चोट के बहाने वे चुनावी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर इंदौर में आराम फरमा रहे हैं। पार्टी के नेताओं के बीच चर्चा व्याप्त है श्री भगत को चुनाव से दूर रहने का अच्छा बहाना मिल गया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि श्री भगत वारासिवनी से आगामी विधानसभा का चुनाव लडऩे का सपना संजो रहे है, जबकि वारासिवनी नगरपालिका में कांग्रेस का खाता भी वे नहीं खुलवा पाये है। जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के लिए विधायक सुश्री हीना कावरे एवं संजय उईके को निष्क्रिय संगठन के चलते अत्यधिक मशक्कत करनी पड़ रही है, दूसरी ओर उन्हें उनके अपने क्षेत्र के जनपद पंचायत में पार्टी समर्थक अध्यक्ष बिठाने की चुनौती से भी रूबरू होना पड़ रहा है। सवाल तो यहां उठता है कि जिले में कांग्रेस संगठन की वर्तमान स्थिति के लिए आखिर जवाबदेह कौन है? तो कांग्रेस के गलियारों में ही जवाब मिल जाता है कि प्रदेश का नेतृत्व ही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है । क्योंकि आलाकमान की आंखों में एक तो जो ‘पी’ का चश्मा लगा हुआ है वह उतरता ही नहीं जबकि सभी को मालूम है कि जिले का ‘पी’ सिर्फ और सिर्फ भाजपा समर्थक है जो भाऊ के प्रभाव से मुक्त हो ही नहीं सकता, आवश्यकता पडऩे पर कांग्रेस के ‘पी’ नेताओं को भी भाऊ को ही याद करना पड़ता है। कांग्रेस के किसी भी ‘पी’ नेता के पीछे ‘पी’ वोट बैंक नहीं है फिर भी उपर के नेताओं की पहली पसंद ‘पी’ होती है, जिले में कांग्रेस की दुर्गति का यही आधार है ।