भाजपा-कांग्रेस के लिए क्‍यों जरूरी है आदिवासी वोट बैंक? क्‍या कहता है चुनावी गणित

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 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शिवराज सरकार आदिवासियों को साधने में जुट गई है। पेसा एक्‍ट, जनजातीय गौरव दिवस और आदिवासी अत्‍याचार को लेकर भाजपा सरकार द्वारा की जा रही कार्रवाई बताती है कि इस बार भाजपा आदिवासियों को जरा भी नाराज नहीं करना चाहती है। वहीं कांग्रेस इस चुनाव में भी आदिवासी वोट बैंक को अपने साथ रखना चाहती है।

साल 2003 और 2018 ये दोनों की साल इस बात की बानगी रहे हैं कि जब-जब आदिवासी वोट बैंक ने करवट बदली है, तब-तब मौजूदा सरकार को सत्‍ता को बाहर का रास्‍ता दिखाया है। 2003 में जहां दि‍ग्विजय सिंह को सत्‍ता से बाहर होना पड़ा था तो वहीं 2018 में भाजपा काे हार का सामना करना पड़ा।

दरअसल, मध्‍य प्रदेश में कुल 47 विधानसभा सीटे आदिवासियों के लिए आरक्षित है, इसके अलावा इन्हे मिलाकर 84 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां आदिवासियों का दबदबा है। मप्र में 230 विधानसभा सीटे हैं, यानी ये 84 सीटे विधानसभा चुनाव जीताने में निर्णायक साबित हाेती है, लिहाजा कोई भी पार्टी आदिवासियों को नाराज कर इन सीटों को खतरे में नहीं डालना चाहती।

आदिवासी आरक्षित सीटो पर क्‍या रही स्थिति?

साल 2003

साल 2003 में दिग्विजय सिंह की सरकार थी, 2003 में जब चुनाव हुए तो आदिवासी वोट बैंक भाजपा के साथ आ गया और भाजपा को उस समय आदिव‍ासियों के लिए अरक्षित 41 सीटों में से 37 सीटो पर जीत मिली। नतीजा दिग्विजय सरकार सत्‍ता से बाहर हो गई और भाजपा के हाथ में प्रदेश की कमान आई।

साल 2008

साल 2008 के चुनाव में भी आदिवासियों ने भाजपा का साथ दिया। परिसीमन के चलते आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्‍या 41 से बढ़कर 47 पर पहुंच गई। भाजपा को 47 में से 29 सीटों पर जीत मिली। नतीजा कांग्रेस सत्‍ता से बाहर रही और प्रदेश में एक बार फिर भाजपा की सरकार बनी।

साल 2013

साल 2013 के चुनाव में भी भजपा को 47 में से 31 सीटों पर जीत मिली। नजीजा मध्‍य प्रदेश में तीसरी बार भाजपा की सरकार बनी।

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