हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करना कोर्ट का काम नहीं, यह राज्यों का अधिकार : सुप्रीम कोर्ट

0

देश की शीर्ष अदालत ने कहा कि जिन राज्यों में हिन्दुओं की संख्या अनुपातिक तौर पर अन्य समुदायों से कम है, वहां उन्हें अल्पसंख्यक घोषित करना कोर्ट का काम नहीं है। अदालत ने यह इंगित करते हुए कहा कि अल्पसंख्यक स्थिति का निर्धारण कई अनुभवजन्य कारकों और आंकड़ों पर निर्भर करता है, जिसके कारण यह अभ्यास उसके न्यायिक क्षेत्र से बाहर है।
न्यायमूर्ति उदय यू ललित और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट की पीठ के अनुसार, शीर्ष अदालत रिकॉर्ड पर प्रामाणिक सामग्री के बिना राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने का सामान्य निर्देश जारी नहीं कर सकती है। पीठ ने याचिकाकर्ता देवकीनंदन ठाकुर जी की ओर से पेश वकील अश्विनी उपाध्याय से कहा, ‘किसी समुदाय को अल्पसंख्यक को घोषित करना अदालत का काम नहीं है। जब तक आप हमें अधिकारों से वंचित करने के बारे में कुछ ठोस नहीं दिखाते हैं, तब तक हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की सामान्य घोषणा नहीं हो सकती है।’
देवकीनंदन ठाकुर जी की ओर से जून में दायर जनहित याचिका ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) अधिनियम, 1992 और एनसीएम शैक्षिक संस्थान (एनसीएमएमईआई) अधिनियम, 2004 के प्रावधान को चुनौती दी गई है जो अल्पसंख्यकों के लिए उपलब्ध कुछ लाभों और अधिकारों को प्रतिबंधित करता है, जिसमें छह अधिसूचित समुदायों- ईसाई, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन के लिए संस्थानों की स्थापना और उनके प्रशासन का अधिकार भी शामिल है।
सोमवार को, पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि 1957 से शीर्ष अदालत के फैसले हैं, जिनमें कहा गया है कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यक का दर्जा राज्य द्वारा सुनिश्चित किया जाना है। पीठ ने कहा, ‘यह मुद्दा 1957 से चला आ रहा है जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे राज्यवार किया जाना है। हम अभी कुछ क्यों कहें या स्पष्ट करें? समस्या यह है कि आप एक ऐसा मामला बनाना चाहते हैं, जब कोई मामला न हो। 1957 के फैसले में, शीर्ष अदालत ने कहा है कि राज्य की पूरी आबादी के संबंध में अल्पसंख्यक का निर्धारण किया जाना चाहिए।’
अदालत ने कहा, ‘यदि आप हमें ऐसे उदाहरण देते हैं जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं और कुछ निर्देशों की आवश्यकता है, तो हम शायद उस पर गौर कर सकते हैं। लेकिन आप कुछ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए एक सामान्य निर्देश की मांग कर रहे हैं। हमें ऐसा क्यों करना चाहिए? हम किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित नहीं कर सकते क्योंकि हमारे पास अलग-अलग राज्यों के आंकड़े या अन्य तथ्य नहीं हैं।’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा केवल राज्य स्तर पर ही दिया जा सकता है। यह काम जिला स्तर पर नहीं होना चाहिए। देवकीनंदन महाराज ने दलील दी थी कि कई राज्यों में हिंदुओं की संख्या कम हो गई है, इसलिए उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। साथ ही हिंदुओं की गणना राज्य की बजाय जिला स्तर पर कराने की मांग की गई थी। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिका में अल्पसंख्यकों का दर्जा जिला स्तर पर तय करने की मांग की गई है, लेकिन ऐसा करना कानून के विपरीत होगा। अदालत ने कहा कि 11 जजों की बेंच पहले ही यह साफ कर चुकी है कि इस मामले को राज्य स्तर पर ही देखा जाना चाहिए।
याचिका में अल्पसंख्यक अधिनियम कानून को संविधान के अनुच्छेद 14,15,21,29 और 30 के विपरीत बताया गया है। याचिका में कहा गया है कि लद्दाख में सिर्फ 1 फीसदी, मिजोरम में 2.75फीसदी, लक्षद्वीप में 2.77फीसदी, कश्मीर में 4फीसदी हिंदू हैं। इसके अलावा नगालैंड में 8.74 फीसदी, मेघालय में 11.52फीसदी, अरुणाचल प्रदेश में 29फीसदी, पंजाब में 38.49 फीसदी और मणिपुर में 41.29 फीसदी हिंदू हैं। इसके बावजूद सरकार ने उन्हें अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया है। याचिका में कहा गया है कि 9 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं, लेकिन वे फिर भी अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान नहीं खोल सकते, जबकि संविधान अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here